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क्या आपने फिल्म मॉंझी देखी है ? देखी ही होगी । उसमें बाबा द्वारा पहाड़ खोदते २० सैकण्ड का डायलॉग है-बाबा गुस्से से एक पत्रकार को बोल रहे हैं , "हम पागल हैं पागल । ये सही गलत का पूछ रहे हैं हमसे ? हमें तो खुद ही नहीं पता हम क्या कर रहे हैं यहॉं ? सही गलत पूछ…

पिताजी के एक बाल सखा हैं श्री अन्नाभाऊ कोटवाले साहब, जो उनके स्वर्गवास के समय समाचार मिलते ही आ गए थे। दुःख में अपने साथ होते हैं तो सहनशक्ति बढ़ जाती है। समय के साथ दुःख की तीव्रता तो कम हो जाती है, पर खालीपन रह जाता है। दो तीन माह पश्चात वे एक बार फिर घर हाल-चाल जानने आए।…

सौढ़ का प्राकृतिक सौंदर्य इतना रमणीय है कि कुछ समय तो मन अभिभूत धन्यवाद के अन्दाज़ में ही रहा। धन्यवाद समय को, धन्यवाद परिजनों को, धन्यवाद उन गुरुओं को जिन्होंने इस सुंदरता को आत्म सात करने के लिए निगाह तराशी। गॉंव वालों का अपनापन ऐसा था कि हम सब एक परिवार की तरह उठ -बैठ, खा-पी, रहे थे। वो थोड़े…

सुबह-सवेरे पाँच बजे चूड़ियों की खनक, खुरपी की छप्प-छप्प, कुदाली से मिट्टी के ढलों की टूटन, पौधों को जड़ों से उखाड़ने की आवाज़, फिर धरती पर झप-झप, सब कुछ एक लय - एक गति। कुछ ऐसा जो बहुत पुरानी यादों का पिटारा खोलता सा लगा। कुछ ऐसा धरती से जुड़ा संगीत जिसे सुनकर मन प्रफुल्लित हुआ। मैं झट से उठकर…

"मेरे पापा को लाऽओ। मेरे पापा को ल्लाओऽऽ?" ममता दिव्यांग है। देखने में सात आठ वर्ष की लगती है पर है पन्द्रह वर्ष की। कुछ दिन पहले ही उसके पापा का स्वर्गवास एक्सीडेंट से हो गया था। जब पापा थे तब समय से ममता को स्कूल से लाने, ले जाने की जिम्मेवारी बहुत लगन से निभाते थे। धूप, सर्दी, पानी,…

ट्रेन के सिटिंग कम्पार्ट्मेंट में बैठे हम बहुत उत्सुकता से बोलपुर स्टेशन का इंतज़ार कर रहे थे। कोलकाता से बहुत लम्बा रास्ता नहीं था। पर आज बचपन की मुराद पूरी होने जा रही थी। हम शांति निकेतन की यात्रा पर थे। किसी ज़माने में माँ की बहुत इच्छा थी कि मैं शांति निकेतन से ग्रैजुएशन करूँ। बचपन से कहती थीं…

लिओ तोलस्टोय और ऐंटॉन चेकोव को पढ़ने के लिए लोग रूसी भाषा सीखते हैं ताकि उनकी रचनाएँ पूरी तरह समझ सकें। उसी तरह ऋषि व्यास महर्षि और कालिदास को समझने के लिए जर्मन... जी हाँ, जर्मन संस्कृत पढ़ते हैं। ज़्यादा दूर नहीं सिर्फ़ पुदुच्चेरी घूम आइए विदेशी original संस्कृत के ग्रंथ हाथ में लिए मुस्कुराते हुए मिल जाएँगे। माहौल में…

बहुत सही नारा है। हर गली-मुहल्ले, टेलिफोन वार्तालाप, स्कूल, यूनिवर्सिटी की कैंटीन या नुक्कड़ नाटक के dialogue में अक्सर सुनायी पड़ रहा है। Change- yes, Change in what? परिस्थिति, वातावरण, राजनीति या आर्थिक नीति? कहाँ चाहिए change? इस change को लानेवाला कौन है? अलादीन का चिराग़-जिन्न या देश का युवा? जो सोचता बहुत है दम-ख़म भी रखता है पर पहल…

जिसने चेतना को झकझोर दिया। दिसम्बर का महीना, कड़ाके की सर्दी से सारा उत्तर भारत काँप रहा था। चारों ओर कुहासे की चादर फैली हुई थी। आम आदमी क्या पशु-पक्षी भी अपने-अपने नीड़ों में घुसकर सर्दी से बचने का प्रयास कर रहे थे, ऐसे ही समय में मुझे एक अत्यावश्यक कार्य से अपने दो छोटे बच्चों के साथ शहर से…

मेरे सभी पुत्रों और पुत्रियों, मैं अब 93 वर्ष का हो चला हूँ। मैं भारतीय आर्मी का एक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हूँ। शायद अभी तक पुराने ज़माने से ताल्लुक रखता हूँ। मैं जीवन के अन्तिम प़ड़ाव में चल रहा हूँ। मैंने विवाह नहीं किया, मेरा अन्य कोई परिवार नहीं है। मेरे जियू (Jew) वंश की आखिरी पहचान मेरे साथ ही…

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